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फाइल फोटो
गाजियाबाद की तुलसी निकेतन कॉलोनी, जहां रोज़मर्रा की ज़िंदगी अपनी रफ्तार में चल रही थी, बुधवार की रात एक ऐसी त्रासदी का गवाह बनी, जिसने न सिर्फ दो जिंदगियों को छीन लिया, बल्कि विकास के नाम पर बने वादों की पोल भी खोल दी। एक 35 साल पुराना छज्जा, जो कभी गरीबों के लिए बने मकानों की शान था, आज मौत का सबब बन गया। इस हादसे ने न सिर्फ तुलसी निकेतन के लोगों को झकझोरा, बल्कि शहर के उन तमाम जर्जर ढांचों पर सवाल खड़े कर दिए, जो किसी और त्रासदी के इंतज़ार में खड़े हैं।
हादसा, जो बन गया काल
रात का वक्त, तुलसी निकेतन कॉलोनी की गलियां अपनी रोज़ाना की चहल-पहल में डूबी थीं। 25 साल का आकाश और उसका 5 साल का भांजा वंश, जिसे प्यार से सब 'लड्डू' बुलाते थे, पास की परचून की दुकान पर सामान लेने निकले। दोनों दुकान के बाहर खड़े थे, शायद लड्डू अपनी पसंद की टॉफी मांग रहा होगा, और आकाश उसे प्यार से समझा रहा होगा। लेकिन किसे पता था कि अगले ही पल सब कुछ बदल जाएगा।
अचानक, सबीना के मकान की पहली मंजिल का छज्जा धराशायी हो गया। भारी-भरकम मलबा सीधे मामा-भांजे पर जा गिरा।लड्डू की नन्ही गर्दन मलबे की चपेट में बुरी तरह जख्मी हो गई, और आकाश के सिर पर गहरी चोट लगी। आसपास के लोग दौड़े, चीख-पुकार मच गई। किसी तरह दोनों को मलबे से निकाला गया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। सूचना पर टीला मोड़ थाना पुलिस और शालीमार गार्डन के सहायक पुलिस आयुक्त अतुल कुमार सिंह मौके पर पहुंचे। दोनों को फौरन गुरुतेग बहादुर अस्पताल ले जाया गया, लेकिन डॉक्टरों ने जो खबर दी, वो सुनकर सबके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। आकाश और लड्डू, दोनों इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे।
35 साल पुराना वादा, जो बन गया खतरा
यह मकान, जिसमें हादसा हुआ, गाजियाबाद विकास प्राधिकरण (जीडीए) ने 35 साल पहले गरीबों के लिए बनाए थे। उस वक्त ये मकान उम्मीद का प्रतीक थे, एक छत, जो कमज़ोर तबके को सहारा देगी। लेकिन समय के साथ इन मकानों की हालत जर्जर हो गई। दीवारें कमज़ोर, छज्जे खोखले, और रखरखाव का नामोनिशान नहीं।
स्थानीय लोगों के मुताबिक, जीडीए ने इन मकानों को तोड़ने के लिए पहले नोटिस भी जारी किए थे, लेकिन कार्रवाई सिर्फ कागजों तक सीमित रही। पूर्व पार्षद विनोद कसाना, जो घटना के बाद मौके पर पहुंचे, ने भी इस लापरवाही पर सवाल उठाए।सवाल ये है कि अगर नोटिस दिए गए थे, तो कार्रवाई क्यों नहीं हुई? क्या एक और हादसे का इंतज़ार था? तुलसी निकेतन के लोग अब डर के साये में जी रहे हैं। हर कोई अपने मकान की छत को शक की नज़रों से देख रहा है, कि कहीं वो भी तो नहीं गिरने वाली।
पुलिस और प्रशासन का रवैया
अतिरिक्त पुलिस आयुक्त आलोक प्रियदर्शी ने बताया कि पुलिस ने तुरंत कार्रवाई की और घायलों को अस्पताल पहुंचाया, लेकिन दोनों को बचाया नहीं जा सका। अब पोस्टमॉर्टम के बाद आगे की कानूनी प्रक्रिया चल रही है। लेकिन सवाल सिर्फ पोस्टमॉर्टम या कानूनी कार्रवाई का नहीं है। सवाल ये है कि इस हादसे की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? जीडीए, जिसने इन मकानों को बनाया? या स्थानीय प्रशासन, जो रखरखाव और सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार है?
एक हादसा, जो सबक है
ये हादसा सिर्फ तुलसी निकेतन की कहानी नहीं है। ये हर उस शहर की कहानी है, जहां पुराने ढांचे खामोशी से मौत का इंतज़ार कर रहे हैं। गाजियाबाद जैसे तेज़ी से बढ़ते शहर में, जहां चमचमाती इमारतें और मॉल रोज़ बन रहे हैं, क्या पुराने ढांचों की सुध लेने की फुर्सत किसी को है? विकास के नाम पर बने ये मकान, जो कभी गरीबों की उम्मीद थे, आज उनके लिए खतरा बन चुके हैं।
लड्डू की मासूम हंसी और आकाश के सपने अब सिर्फ यादों में रह गए। लेकिन क्या हम इस हादसे से कुछ सीखेंगे? क्या प्रशासन अब जागेगा और जर्जर मकानों को ढहाने की प्रक्रिया तेज़ करेगा? या फिर ये हादसा भी फाइलों में दबकर रह जाएगा, और हम अगली त्रासदी का इंतज़ार करेंगे?
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