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Ghaziabad News - गर्मी में मिट्टी की ठंडक: गाजियाबाद के जटवाड़ा मोहल्ले की कहानी

इस गर्मी, जब आप ठंडे पानी की तलाश में हों, जटवाड़ा मोहल्ले का रुख करें। यहां का मिट्टी का घड़ा न सिर्फ आपकी प्यास बुझाएगा, बल्कि एक सदी पुरानी कहानी को भी आपके करीब लाएगा। आखिर, मिट्टी की ठंडक में जो सुकून है, वो कहीं और कहां?

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Kapil Mehra
फोटो जर्नलिस्ट सुनील कुमार
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गाजियाबाद, वाईबीएन संवाददाता

गर्मी का मौसम आते ही मिट्टी के घड़े का ठंडा पानी जैसे तन-मन को तृप्त कर देता है। इस मौसम में जहां लोग कूलर और फ्रिज के भरोसे रहते हैं, वहीं गाजियाबाद के जटवाड़ा मोहल्ले में मिट्टी की खुशबू और कुम्हारों की मेहनत एक अलग ही कहानी बयां करती है। यह मोहल्ला, जिसे स्थानीय लोग 'कुम्हारों का मोहल्ला' कहते हैं, न सिर्फ मिट्टी के बर्तनों का गढ़ है, बल्कि एक सदी से ज्यादा पुरानी परंपरा और संस्कृति का प्रतीक भी है।

गांव सा एहसास, शहर के बीच

जटवाड़ा मोहल्ला शहर की भागदौड़ के बीच एक ठहराव सा है। जैसे ही आप इसकी संकरी गलियों में कदम रखते हैं, गीली मिट्टी की भीनी-भीनी खुशबू हवा में तैरती मिलती है। छोटे-छोटे घर, खुले दरवाजे, और मिट्टी से सने हाथों में चाक घुमाते कुम्हार यहां का नजारा गांव की याद दिलाता है। 100 साल से भी पुराना यह मोहल्ला आज भी अपनी पहचान बनाए हुए है। यहां करीब 20 से ज्यादा परिवार मिट्टी के बर्तन बनाने के पेशे से जुड़े हैं, जो न सिर्फ उनका रोजगार है, बल्कि उनकी जिंदगी का हिस्सा भी।

फोटो जर्नलिस्ट सुनील कुमार

मेहनत की मिट्टी, तराशी हुई कला

यहां हर उम्र के लोग इस कला में डूबे नजर आते हैं। छोटे बच्चे मिट्टी को गूंथते हैं, तो 85 साल के बुजुर्ग अपने अनुभव से उसे आकार देते हैं। चाक पर घूमती मिट्टी को बर्तन में बदलते देखना किसी जादू से कम नहीं। ये कुम्हार अपनी मेहनत से तैयार बर्तनों को बाजार में बेचते हैं, जहां ये बाजार के मुकाबले सस्ते दामों पर उपलब्ध होते हैं। क्वालिटी के मामले में भी ये किसी से पीछे नहीं।

तकनीक ने बदली तस्वीर, पर जुनून वही

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86 वर्षीय खेमचंद, जो इस मोहल्ले के सबसे बुजुर्ग कुम्हारों में से एक हैं, पुराने दिनों को याद करते हुए भावुक हो जाते हैं। वह बताते हैं, “पहले पत्थर की चाक होती थी, पैरों से चलती थी। फिर बिजली की चाक आई, काम आसान हुआ। लेकिन समय के साथ मिट्टी के बर्तनों की जगह स्टील और प्लास्टिक ने ले ली।” पहले हर रसोई में मिट्टी के बर्तन हुआ करते थे, लेकिन अब इनकी मांग सीमित हो गई है।

फोटो जर्नलिस्ट सुनील कुमार

फिर भी, गर्मी के मौसम में पानी के घड़े और कुल्हड़ की डिमांड बढ़ जाती है।खेमचंद बताते हैं कि आजकल कुल्हड़ में चाय और लस्सी का चलन बढ़ा है। सड़क किनारे ढाबों से लेकर शहर की चाय की दुकानों तक, कुल्हड़ ने अपनी जगह बनाई है। पानी के घड़े भी खूब बिक रहे हैं, जिनकी कीमत 60 रुपये से लेकर 150 रुपये तक है। सस्ते दाम और बेहतरीन क्वालिटी के चलते लोग दूर-दूर से यहां बर्तन खरीदने आते हैं।

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फोटो जर्नलिस्ट सुनील कुमार

मिट्टी की ठंडक, सेहत का खजाना

मिट्टी के घड़े का पानी न सिर्फ ठंडा होता है, बल्कि सेहत के लिए भी फायदेमंद है। यह प्राकृतिक रूप से ठंडा रहता है और इसमें कोई केमिकल नहीं होता। प्लास्टिक की बोतलों के दौर में मिट्टी के बर्तन पर्यावरण के लिए भी वरदान हैं। कुल्हड़ में चाय या लस्सी पीने का स्वाद ही अलग है, जो न सिर्फ स्वादिष्ट लगता है, बल्कि एक पुरानी परंपरा को भी जीवित रखता है।

फोटो जर्नलिस्ट सुनील कुमार

एक कोशिश

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जटवाड़ा के कुम्हार न सिर्फ मिट्टी को तराशते हैं, बल्कि अपनी मेहनत से एक पुरानी कला को जिंदा रखे हुए हैं। लेकिन बढ़ती टेक्नोलॉजी और बदलते लाइफस्टाइल ने इस पेशे को चुनौती दी है। अगर हम मिट्टी के बर्तनों को अपनी जिंदगी में थोड़ी सी जगह दें, तो न सिर्फ इन कुम्हारों को सहारा मिलेगा, बल्कि हमारी सेहत और पर्यावरण को भी फायदा होगा।

फोटो जर्नलिस्ट सुनील कुमार

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