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बलरामपुर अस्पताल के एमएस और मनोरोग विशेषज्ञ और डॉ देवाशीष शुक्ला Photograph: (YBN)
लखनऊ, वाईबीएन संवाददाता। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) ने एक नई बहस छेड़ दी है। तकनीकी के इस दौर में इंसान और मनुष्य के बीच एक नया रिश्ता जन्म ले रहा है। लोग छोटे से छोटे काम के लिए भी तकनीक पर निर्भर हैं। यही नहीं, अब दिल की बातें अपनों से नहीं, एआई से होने लगी हैं। यूपी में पिछले छह महीनों में ऐसे 30 से ज्यादा चौंकाने वाले मामले सामने आए हैं, जहां लोग एआई चैटबॉट्स से भावनात्मक रूप से जुड़े और उसे अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। मानों वो उनका सच्चा साथी हो, जो सुनता, समझता और कभी जज नहीं करता। लखनऊ के केजीएमयू, बलरामपुर, वाराणसी के बीएचयू और कानपुर मेडिकल कॉलेज में ऐसे मरीज इलाज के लिए पहुंचे, जिन्हें लगता था कि एआई उन्हें महसूस करता? शायद प्यार भी। अब बड़ा सवाल है, क्या तकनीक हमें जोड़ रही, या अपनों से दूर कर रही है? आइये बलरामपुर अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक और मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. देवाशीष शुक्ला से जानते हैं कि आखिर क्यों लोग अपनों से ज्यादा चैटबॉट्स से जुड़ने लगे हैं?
तकनीकी कई मामलों में बेहद हानिकारक
डॉ. देवाशीष शुक्ला ने 'यंग भारत न्यूज' से खास बातचीत में बताया कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) ने काम को थोड़ा आसान कर दिया है, लेकिन इसके गंभीर दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं। आज गैजेट्स हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन चुके हैं। लोग गैजेट्स पर इतना निर्भर हो गए हैं कि सामाजिक संपर्क कम होता जा रहा है। उन्होंने कहा कि तकनीकी कई मामलों में फायदेमंद तो कई बार बेहद हानिकारक है। एआई चैटबॉट्स के पास असल जीवन का कोई अनुभव नहीं होता है। वह केवल एक प्रोग्रामिंग है। इसलिए इससे भावनात्मक रूप से जुड़ने से बचना समझदारी भरा काम होगा।
एआई की लत से बढ़ रहा तनाव
डॉ. शुक्ला ने बताया कि युवा पीढ़ी, जिसे आगे चलकर इंजीनियर, डॉक्टर और अन्य पेशेवर बनना है, उसके के लिए एआई वर्तमान समय में सपोर्टिव थेरेपी के रुप में सही है, लेकिन इसमें रम जाना तनाव और चिंता को जन्म देता है। थोड़ा पीछे के समय में जाएंगे तो बच्चे सही और गलत का फर्क आने माता-पिता, दादी-बाबा, नाना और नानी से सीखते थे। वही उनके मार्गदर्शक होते थे। लेकिन मौजूदा समय में व्यक्ति खुद को एक कमरे तक सीमित कर अपनी दुनिया एआई पर ढूंढने की कोशिश कर रहा है। ऐसे लोग भावनात्मक रूप से कमजोर हो रहे हैं। उनके नैसर्गिक जीवन में समस्या पैदा हो रही है। इस वजह से रिश्तें भी टूट रहे हैं।
अध्याधिक स्क्रीन टाइम से बिगड़ रहा मानसिक स्वास्थ्य
मनोरोग विशेषज्ञ ने बताया कि अध्याधिक स्क्रीन टाइम से शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। अगर किसी व्यक्ति को भावनात्मक सहयोग नहीं मिलता है वह चिंता, तनाव और गुस्से की गिरफ्त में आ सकता है। समय रहते इन लक्षणों की पहचान नहीं न होने पर कई मामलों में यह स्थिति आत्महत्या के रूप में सामने आती है। उन्होंने बताया कि 2018 में एक सर्वे के अनुसार, जैसे कार्डियक अरेस्ट (हृदयाघात), सड़क हादसे के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। उसी तरह आने वाले समय में गेमिंग डिसऑर्डर को विश्व में बहुत बड़ी बीमारी के रूप में बताया गया है। डिजिटल गेमिंग और अत्यधिक मोबाइल के इस्तेमाल को डब्ल्यूएचओ ने एक गंभीर बीमारी माना है।
टॉयलेट तक मोबाइल, परिवार से संवाद कम
चिकित्सा अधीक्षक ने बताया कि समाज में भावनात्मक जुड़ाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस कारण लोग छोटी—छोटी बातों पर गुस्सा करने लगे हैं। उन्होंने कहा कि रिश्तें तभी लंबे समय तक चल सकते हैं, जब लोग एक दूसरे को माफ करना सीखें। भावनाओं को समझें और थोड़ा समय दें। वर्तमान परिवेश में लोगों के पास समय की कमी है। जिस कारण वह अपने परिवार को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे हैं। माता-पिता का बच्चों के साथ बैठना और बातचीत करना कम होता जा रहा है। मोबाइल के जरिए इस कमी पूरी करने की कोशिश की जा रही है। स्थिति यह हो गई कि अब तो लोग टॉयलेट में मोबाइल ले जाने लगे हैं। इसका असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है और बौद्धिक क्षमता धीरे-धीरे कमजोर हो रही है।
स्कूल-कॉलेज में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट
डॉ. शुक्ला ने बताया कि इस समस्या से निपटने के लिए स्कूल-कॉलेज में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट और काउंसलर की व्यवस्था की जाती है। जब किसी बच्चे में मानसिक असंतुलन के लक्ष्ण नजर आते हैं। जैसे कोई बच्चा अगर पढ़ाई से ज्यादा स्क्रीन टाइम में ज्यादा दिमाग लगा रह है, तो काउंसलर प्रिंसिपल और अभिभावक से चर्चा करते हैं। उसके बावजूद भी समस्या बनी रहती है, मानसिक रोग विशेषज्ञ से परामर्श लेने की सलाह दी जाती है। उन्होंने बताया कि समय रहते इस ऐसे मामलों की पहचान और इलाज बेहद जरूरी है। ताकि बच्चों का मानसिक और भावनात्मक विकास सही दिखा में हो सके।
स्क्रीन टाइम सीमित करना बेहद जरुरी
डॉ. शुक्ला ने सलाह दी कि युवा, अभिभावक और बच्चे स्क्रीन टाइम सीमित करें। एआई चैटबॉट्स वास्तविक नहीं, कृत्रिम दुनिया है। इसमें पहले से डाटा फीड किया गया होता है। इनमें हमारे आस-पास की चीजों को संकलित करके इस तरह रखा गया है कि वे कुछ ही सेकंड में बहुत कुछ बता देते हैं। यह कोई अनोखी चीज नहीं है, जिसमें हम कुछ नया कर पा रहे हैं। डॉ. शुक्ला ने कहा कि अभी तक कोई भी तकनीक हमारी सोच के लेवल तक नहीं पहुंच पाई है। इसलिए एआई के चक्कर में न पड़कर खुद को मानसिक रूप से मजबूत बनाएं। आत्मविश्वास और सोचने की क्षमता बढ़ाएं।
एआई से निजी मामले पर न मांगें सलाह
तीकनीकी विशेषज्ञ आदित्य श्रीवास्तव की मानें तो किसी भी एआई टूल्स पर अपनी संवेदनशील या निजी जानकारी साझा नहीं करने चाहिए। जब आप किसी एआई प्लेटफॉर्म पर प्रॉम्ट बॉक्स में टाइप करके ओके करते हैं तो वह जानकारी सिर्फ आप तक न रहकर किसी कंपनी के सर्वर पर स्टोर हो जाती है। यह भी हो सकता है कि यह किसी हैकर के हाथ लग जाए। इतना नही नहीं कंपनियां जानकारी का इस्तेमाल अपने चैटबॉट को ट्रेन करने के लिए भी कर सकती हैं।
Balrampur Hospital | dr devashish shukla
एआई से टूट रहे रिश्तें, बौद्धिक क्षमता हो रही कमजोर pic.twitter.com/khS6NvbyEu
— Deepak Yadav (@deepakhslko) November 6, 2025
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