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प्रयागराज, वाईबीएन विधि संवाददाता।इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि सामान्य परिस्थितियों में दर्ज एफआईआर को कोर्ट रद्द नहीं कर सकती। केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप किया जा सकता है, जहां एफआईआर से किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा नहीं हो रहा हो, या फिर विवेचना को जारी रखना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत हो रहा हो। न्यायमूर्ति चंद्र धारी सिंह एवं न्यायमूर्ति लक्ष्मी कांत शुक्ल की खंडपीठ ने यह आदेश पारूल बुधराजा व तीन अन्य की याचिका पर सुनवाई के बाद दिया। कोर्ट ने कहा कि एक ही घटना और संव्यवहार से जुड़ी दूसरी एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती, लेकिन यदि उसी प्रकरण में पहले दर्ज अपराध को खारिज कर दिया गया हो और बाद में उससे भिन्न घटनाक्रम सामने आए, तो ऐसी स्थिति में नई एफआईआर दर्ज की जा सकती है। इसे एक ही घटना पर दूसरी एफआईआर नहीं कहा जाएगा।
हाईकोर्ट ने खारिज की याचिका
मामले में शिकायतकर्ता के भाई ने पहले झांसा देकर फर्जी निवेश कराने के आरोप में एफआईआर दर्ज कराई थी। पुलिस ने जांच के बाद उस पर फाइनल रिपोर्ट लगा दी। इसके बाद स्वयं पीड़ित ने फर्जी दस्तावेजों और फर्जी नोटरी के माध्यम से गुमराह करने के आरोप में नई एफआईआर दर्ज कराई। कोर्ट ने माना कि दूसरी एफआईआर अलग अपराध से संबंधित है, अतः इसे एक ही घटना की दूसरी एफआईआर नहीं माना जा सकता। याचियों ने तर्क दिया कि दोनों एफआईआर एक ही घटना से जुड़ी हैं और दूसरी एफआईआर दर्ज किया जाना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग तथा अनुच्छेद 14, 20 और 21 के तहत मिले मूल अधिकारों का उल्लंघन है। वहीं शिकायतकर्ता के अधिवक्ता ने कहा कि दोनों एफआईआर के कारण और घटनाक्रम अलग-अलग हैं, इसलिए यह नई एफआईआर वैध है। यह प्रकरण गाजियाबाद के लिंकरोड थाने का है, जहां एक एफआईआर ऋषभ अग्निहोत्री और दूसरी शुभम अग्निहोत्री ने दर्ज कराई थी। पहली एफआईआर में आरोप था कि याचियों ने क्यू-नेट स्टाइल से 2019 में ट्रैवल पैकेज और हेल्थ प्रोडक्ट के नाम पर ₹7,50,000 का निवेश कराया। बाद में फर्जी हस्ताक्षर, मुहर और फर्जी नोटरी दस्तावेजों के प्रयोग से गुमराह करने पर दूसरी एफआईआर दर्ज की गई। कोर्ट ने माना कि दर्ज एफआईआर से अपराध का prima facie खुलासा होता है, अतः उसमें हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं बनता। परिणामस्वरूप, याचिका खारिज कर दी गई।
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