मौजूदा समय में जिस तरह वैवाहिक जीवन में पति पत्नी ही एक दूसरे की हत्या कर अपराध को अंजाम दे रहे हैं ऐसे में हमारे संस्कारों और सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाता प्रो. कनक रानी का आलेख
वैवाहिक जीवन में मोबाइल भी बाधक Photograph: (इंटरनेट मीडिया)
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शाहजहांपुर वाईबीएन संवाददाता
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हाल ही में दांपत्य से जुड़ी अनेक नृशंस घटनाओं ने समाज को स्तब्ध कर दिया है। इतना ही नहीं, कटुता का भाव आपराधिक वृत्तियों का रूप ले रहा है। वैवाहिक संबंध से छुटकारा पाने के लिए जीवन संगी के अस्तित्व को नकार देना वाकई कल्पना से परे है। सामाजिक ताना-बाना कमजोर हो रहा है बिखराव-अलगाव के मामलों से। बर्बर हादसे भी दांपत्य जीवन के स्थायित्व को चोट पहुंचा रहे हैं। आत्मीय संबंधों में पनपती विकृतियां नैतिक और वैचारिक रूप से दुष्प्रभावित कर रही हैं। सामंजस्य- सहानुभूति-सहयोग-संवेदना का घटता ग्राफ समाज की प्राथमिक संस्था की नींव को खोखला बना रहा है।
दांपत्य के बीच भावनात्मक संबंधों में आड़े आ रहे कई कारण
भावनात्मक तौर पर पवित्र संबंध की यह दु:खद परिणति संदर्भ को शोचनीय बनाती है। वस्तुत: नीति विरुद्ध संबंधों के अवांछित परिणामों को देखकर समाज सकते में हैं। यही कारण है कि वैवाहिक जीवन की एक लंबी पारी के सुखद अनुभवों से वंचित होने की स्थिति पर विचार करने की जरूरत है।
स्मरणीय है कि आपराधिक वृत्तियों की आंच परिवार ही नहीं सकल समाज तक पहुंचती है। भावनात्मक भरोसा का घटता स्तर परिवार संस्था के अस्थायित्व को हवा दे रहा है, यह कड़वी सच्चाई है। पति-पत्नी, पुरुष-स्त्री पाणिग्रहण के युगल दायित्व के निर्वहण में आजीवन समर्पण की सुखद अनुभूति कैसे कर पाएंगे? ऐसे में नवयुवक-नवयुवतियों के अंदर दांपत्य में अनास्था और अविश्वास का उत्पन्न होना कदाचित् असंभव नहीं। विचारणीय है कि क्या हमारा समाज परंपरा से प्राप्त पारिवारिक मूल्यों को दरकिनार कर अपनी गरिमा को सुरक्षित रख पाएगा? कथित विद्रूपताओं के चलते विवाह संस्था के लिए अपने वजूद को बनाए रखना क्या दुष्कर नहीं होगा? अविवाहित रहना, लिव इन रिलेशनशिप, विवाहेतर संबंध कदाचित् ही दांपत्य के सुखद भविष्य का विकल्प दे सकते हैं।आज के दौर में संबंधों के अंतर्गत विसंगतियां त्याग-करुणा-ममता के स्थान पर संबंधों की अस्थिरता के डर को, चरित्रगत शंकालु स्वभाव को, विखंडन से जन्मे आक्रोश को और नृशंसता से भरे भावों को बढ़ावा दे रही हैं।
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पति-पत्नी के बीच टूटते संबंधों से सिमट जाता है बाल जीवन
संवेदनहीनता की ओर बढ़ते कदम मानवता को चिह्नित कर रहे हैं। इसके अलावा उचित- अनुचित का भेद धूमिल हो रहा है जिसे सामाजिक सौंदर्य के लिए समीचीन नहीं कहा जा सकता। इसके अतिरिक्त पति-पत्नी के बीच टूटते संबंधों से बाल जीवन जटिलताओं में सिमट कर रह जाता है और त्रासद परिस्थितियों से जूझता रहता है। अपराधों की छाया में पलते बचपन का आर्थिक/सामाजिक अनुकूलता से वंचित होना असहज नहीं।
दांपत्य की स्थिरता तो आपसी प्रेम की प्रतीति में है
हां, यह सच है कि विवाहेतर संबंध सुखद दांपत्य जीवन के लिए आवश्यक प्रेम और विश्वास को क्षीण करते हैं। लंबे समय से प्रवाहमान सांस्कृतिक परंपरा पति- पत्नी सहित परिवार के समक्ष स्नेहिल बंधन का आदर्श रखती है। दांपत्य की स्थिरता तो आपसी प्रेम की प्रतीति में है। विश्वास और समर्पण की अनुभूति में है। सम्मान की अभिव्यक्ति में है। अमानवीय बर्ताव में नहीं। युवक हो अथवा युवती, भली-भांति विचारोपरांत ही विवाह का निर्णय लें। माता-पिता- गुरुजनों के समक्ष दिक्कतों की चर्चा समाधान का रुख दिखा सकती है। अविचारित तथा अमर्यादित कार्यों की परिणति को सामाजिक स्वीकारोक्ति नहीं मिलती। ध्यातव्य है कि इस दिशा में भविष्य के अंधकारित होने की भी संभावनाएं हैं।