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Photograph: (वाईबीएन netwrk)
शाहजहांपुर वाईबीएन संवाददाता। बचपन में गांव की गलियों से उठी एक आवाज़ जिसने कभी नहीं सोचा था कि वह प्रदेश के सबसे बड़े पद की दहलीज़ तक पहुंचेगी। यह कहानी है बाबू सत्यपाल सिंह यादव की जिन्हें आज भी लोग बाबूजी कहकर याद करते हैं।
बाबूजी का जन्म शाहजहांपुर जिले के एक सामान्य किसान परिवार में हुआ। सादगी, कर्मठता और जनसेवा उनके व्यक्तित्व की पहचान बन गई। गांव के स्कूल से पढ़ाई की लेकिन मन में हमेशा समाज के लिए कुछ करने की ललक थी। आज जब राजनीति में टिकट की मारामारी जोड़तोड़ और पद की लालसा चरम पर है तब बाबू सत्यपाल सिंह यादव जैसे नेता याद आते हैं जो स्वयं एक पार्टी थे। उनकी छवि ऐसी थी कि जो पार्टी उन्हें टिकट देती सीट उसी की मानी जाती थी। शाहजहांपुर से लेकर लखनऊ और दिल्ली तक उनके व्यक्तित्व का लोहा माना गया।
तिलहर सीट से रहे अपराजेय बाबू सत्यपाल सिंह यादव का राजनीतिक सफर सिर्फ चुनाव लड़ने का नहीं था बल्कि वह खुद में एक पार्टी बन चुके थे। 1974 से लेकर 1998 तक उन्होंने जनसंघ, कांग्रेस, जनता पार्टी सेक्युलर, लोकदल, जनता दल और भाजपा इन छह दलों से चुनाव लड़ा और लगभग हर बार जीते।
एक नेता, कई पार्टियां, हर बार जीत
1974: जनसंघ से तिलहर विधायक
1977: कांग्रेस से तिलहर विधायक
1980: जनता पार्टी सेक्युलर से तिलहर विधायक
1985: लोकदल से तिलहर विधायक
1991: जनता दल से तिलहर विधायक
1989: कांग्रेस (जगजीवनराम) से शाहजहांपुर सांसद
1991: जनता दल से शाहजहांपुर सांसद
1998: भाजपा से शाहजहांपुर सांसद
हर बार पार्टी बदली मगर जनता का भरोसा वही रहा।
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जब 254 वोटों से हारी थी मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद
1989 में जब जनता दल बना बाबू सत्यपाल सिंह यादव ने एक साथ लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव लड़ा। लोकसभा जीत गए मगर विधानसभा की तिलहर सीट से मात्र 254 वोटों से हार गए। अगर वो जीत जाते तो मुख्यमंत्री पद तक पहुंचना तय माना जा रहा था। लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था। यही राजनीति का सच है।
जब झंडा नहीं था तो बना लिया केले का पत्ता
1989 में जब वह बाबू जगजीवन राम की कांग्रेस पार्टी से चुनाव लड़ रहे थे तब झंडे का संकट था। सभा के दौरान उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा रुपया नहीं है तो क्या केले का पत्ता तोड़ो और उसे ही झंडा बना लो। सभा में हज़ारों कार्यकर्ता केले के पत्तों को पार्टी प्रतीक बनाकर लहराते नजर आए। बाबू सत्यपाल सिंह यादव जैसे नेता आज की राजनीति के लिए आइना हैं। आज जब टिकट के लिए सिफारिशें सोशल मीडिया प्रचार और जातीय जोड़तोड़ चल रही है तब ऐसे नेता याद आते हैं जिनका नाम ही जीत का प्रमाण था। वे न प्रचार में पैसा बहाते थे न भीड़ जुटाने के लिए बसें बुक करते थे। जनता खुद उन्हें अपना मानती थी क्योंकि उन्होंने खुद को जनता के बीच कभी छोटा नहीं होने दिया। ऐसा नेता जिसकी जीत पार्टी की पहचान बन गई सत्यपाल सिंह को चुनाव लड़ने के लिए किसी विशेष दल की छवि की आवश्यकता नहीं थी। वे जहां खड़े हो जाते वहीं जनता उनके साथ हो जाती। उन्होंने कई बार नई या कमजोर पार्टियों का खाता खोला जिनका आगे कोई नामलेवा नहीं रहा।
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बाबू जी 1998-1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के राज्य मंत्री रहे। वे पांच बार विधायक और तीन बार सांसद रहे।
राजनीति के गुरु चरण सिंह व अजीत सिंह
उनके राजनीतिक गुरु चौधरी चरण सिंह और चौधरी अजीत सिंह थे। दोनों नेताओं के साथ उन्होंने वैचारिक निष्ठा और किसान हितों की लड़ाई लड़ी। उनका निधन 23 जुलाई 2004 को हुआ। उनके बाद उनके पुत्र राजेश यादव और अमित यादव उर्फ रिंकू राजनीतिक विरासत को संभाल रहे हैं।