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स्कूली Maths असल जीवन में नहीं आता काम, Noble Prize Winner की रिसर्च ने क्या कहा?

हाल ही में एक रिपोर्ट आई है जिसमें ये दावा किया गया है कि स्कूल जाने वाले व स्ट्रीट वेंडर बच्चों की मैथ्स में बहुत अंतर है। इस रिसर्च में नोबल प्राइज विजेता भी शामिल रहे।

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Manish Tilokani
Wide gap between ‘street maths’ and ‘school maths’, shows study

नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क।

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जब हम स्कूल में होते है, तो हमें अक्सर मैथ्स पर सबसे अधिक ध्यान देने को कहा जाता है। इसके पीछे का तर्क ये बताया जाता है कि मैथ्स आपकी स्कूल की परीक्षा के साथ-साथ आपके जीवन के लिए भी महत्वपूर्ण है। मगर अब एक रिपोर्ट में ये जानकारी निकलकर सामने आई है कि भारतीय बच्चों में स्कूल में पढ़ाए जाने वाले मैथ्स और वास्तविक जीवन में जरूरी मैथ्स के बीच एक बड़ा अंतर है। स्टडी बताती है कि जहां स्कूल जाने वाले बच्चे पढ़ाई-लिखाई वाली मैथ्स में अच्छे होते हैं, वहीं बाजार में काम करने वाले बच्चे जटिल लेन-देन को मानसिक रूप से जल्दी से हल कर सकते हैं, लेकिन वे स्कूल के मैथ्स में संघर्ष करते हैं। यह अध्ययन नोबेल पुरस्कार विजेता एस्थर डुफलो और अभिजीत बनर्जी सहित शोधकर्ताओं की टीम ने किया है।  

नोबेल पुरस्कार विजेता रहे शोध में शामिल 

नोबेल पुरस्कार विजेता एस्थर डुफलो और अभिजीत बनर्जी सहित शोधकर्ताओं की टीम ने यह जांचने की कोशिश की कि क्या वास्तविक जीवन में प्राप्त मैथमेटिक्स कौशल स्कूल में उपयोगी हो सकते हैं और क्या स्कूल में सीखी गई मैथमेटिक्स तकनीकें जीवन के वास्तविक दुनिया में काम आती हैं। शोधकर्ताओं ने दिल्ली और कोलकाता के बाजारों में 1,436 बाल विक्रेताओं और 471 स्कूल बच्चों के साथ अध्ययन किया।

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शोध से क्या पता चला?

इस अध्ययन में यह पाया गया कि बाल विक्रेता जटिल मानसिक गणना को अपने बिक्री लेन-देन में बगैर किसी मदद के हल कर सकते हैं, लेकिन वही समस्या जब उन्हें किताबों में दी जाती है, तो वे उन्हें हल नहीं कर पाते हैं। वहीं दूसरी ओर, स्कूल के बच्चे मैथ्स के टेक्स्टबुक वाले सवालों को हल करने में अच्छे होते हैं, लेकिन वे बाजार में होने वाली वास्तविक लेन-देन की गणना नहीं कर पाते हैं।

किन छात्रों पर हुई रिसर्च? 

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इस अध्ययन में शामिल सभी बच्चे 17 साल से कम उम्र के थे और अधिकतर 13 से 15 साल के थे। कार्यरत बच्चों में से 1% से भी कम स्कूल जाने वाले बच्चे उन व्यावहारिक बाजार समस्याओं को हल कर पाए जो एक तिहाई कामकाजी बच्चों ने आसानी से हल कर दी थीं। यह दर्शाता है कि कामकाजी बच्चे मानसिक शॉर्टकट्स का इस्तेमाल करते हैं, जबकि स्कूल जाने वाले बच्चे धीमे, लिखित गणना पर निर्भर रहते हैं। 

भारत की शिक्षा प्रणाली में है कमियां

शोधकर्ताओं का मानना है कि भारत में शिक्षा प्रणाली इस अंतर को दूर करने में असफल रही है, जहां स्कूल और वास्तविक जीवन के मैथ्स के बीच कोई तालमेल नहीं है। यह अध्ययन MIT, Harvard University और अन्य संस्थाओं के शोधकर्ताओं ने किया है, और इसे Nature जर्नल में प्रकाशित किया गया है। 

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शिक्षा प्रणाली में बदलाव की जरूरत 

डुफलो ने इस पर बात करते हुए कहा कि स्कूल की शिक्षा प्रणाली में घर और स्कूल के ज्ञान के बीच कोई संबंध नहीं है, जो न केवल स्कूल शिक्षा के लिए बुरा है, बल्कि ऐसे बहुत से टैलेंट को पहचानने में भी मदद नहीं करता, जो पहले से ही मौजूद हैं। उनका कहना है कि पाठ्यक्रम को फिर से सोचने की आवश्यकता है, ताकि बच्चों को दोनों प्रकार के मैथ्स को जोड़कर पढ़ाया जा सके। 

यह रिसर्च हमें बताती है कि स्कूल में बच्चों को मैथ्स केवल एक करीकुलम के रूप में सिखाया जाता है, और जब वे उसे वास्तविक जीवन में लागू करने की कोशिश करते हैं, तो वह काम नहीं करता।

 

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