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Explainer : बिहार चुनाव में केजरीवाल की राह चले PK? क्या है प्रशांत किशोर की सियासी रणनीति? | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने जिस तेजी से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पाया, उसने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पीके को बेचैन कर दिया। दिल्ली की सफलता से प्रेरणा लेकर अब पीके ने बिहार में 'जन सुराज' की राह पकड़ी है। 100 भ्रष्ट नेताओं को जेल भेजने के केजरीवाल-स्टाइल ऐलान के साथ, पीके क्या बिहार की कठिन राजनीति में खुद को स्थापित कर पाएंगे या उनकी चुनावी रणनीति की बाजी यहां उल्टी पड़ जाएगी? आइए Young Bharat News की इस Explainer में विस्तार से समझते हैं।
प्रशांत किशोर, रूकिए! ये केवल प्रशांत किशोर ही नहीं हैं इन्होंने बड़ी चालाकी अपना पूरा नाम छिपा रखा है। बिल्कुल पत्रकार रवीश कुमार की तर्ज पर। अब तो आप समझ ही गए होंगे। बिहार की यह स्टाइल काफी प्रचलन में है पता है क्यों। बताता हूं ताकि आसानी से ऐसे लोगों के बीच अपनी छुपी पहचान बना सकें जो थोड़ा कम पढ़े लिखे हों और हां वो तर्क कुतर्क से बचते हों। ऐसे लोगों की तादात यूपी बिहार में काफी है।
अब बात करते हैं पीके यानि प्रशांत किशोर की। इनका पूरा नाम प्रशांत किशोर पाण्डेय है। और हां पत्रकार रवीश कुमार का पूरा नाम रवीश कुमार पाण्डेय है। अब तो आप कुछ ज्यादा ही समझ गए होंगे।
ये वही प्रशांत किशोर हैं जिन्हें पीके के नाम से जाना और पहचाना तो जाता ही है साथ ही जिन्हें भारत की चुनावी राजनीति का 'गेम चेंजर' भी कहा जाता है।, वे अचानक खुद को एक अजीब चौराहे पर पाते हैं। जिस दिल्ली की सियासत में उन्होंने कभी अपनी रणनीतिक प्रतिभा का लोहा मनवाया था, उसी दिल्ली की एक छोटी पार्टी- आम आदमी पार्टी- ने कम समय में जिस तरह राष्ट्रीय पहचान हासिल की, उसने पीके को गहराई से सोचने पर मजबूर कर दिया। वह एक सवाल का जवाब खोज रहे थे अगर केजरीवाल यह कर सकते हैं, तो मैं, जो इतने मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों को उनकी कुर्सी तक पहुंचा चुका हूं, क्यों नहीं कर सकता?
पीके को यह बात अच्छी तरह से पता है कि राजनीतिक रणनीति बनाना और खुद राजनीति करना दो बिल्कुल अलग खेल हैं। एक में आप पर्दे के पीछे रहकर धागे खींचते हैं दूसरे में, आपको खुद को जनता के सामने एक भरोसेमंद चेहरा साबित करना होता है।
अब उनका अगला लक्ष्य था- बिहार। अपनी जन्मभूमि को 'बदलने' का सपना बुनकर, वह राजनीति की दलदल में उतर गए।
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दिल्ली बनाम बिहार जमीन और जमीर का फर्क
राजनीति के पंडित कहते हैं कि पीके ने शायद एक बुनियादी फर्क को नज़रअंदाज़ कर दिया। दिल्ली, भारत की राजधानी के साथ एक ऐसी जगह है जहां त्वरित बदलाव और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों पर जनता तेजी से प्रतिक्रिया देती है। अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शक्तिशाली भावनात्मक लहर पर सवार होकर सत्ता पाई। उनकी 'शपथ' और 'गारंटी' पर जनता ने यकीन किया।
लेकिन बिहार की राजनीति, दिल्ली की तरह सरल नहीं है। यह जाति, वर्ग और दशकों से चली आ रही 'जंगलराज' बनाम 'सुशासन' की बहस में उलझी हुई है।
पहला अंतर: दिल्ली की जनता नए प्रयोगों के लिए खुली है। बिहार की जनता पुरानी निष्ठाओं और पहचान की राजनीति से जुड़ी हुई है।
दूसरा अंतर: दिल्ली में सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाना आसान था। बिहार में, जनता अब 'जंगलराज' से मुक्ति की कीमत और उसकी निरंतरता को लेकर ज्यादा संवेदनशील है।
यह वह जटिल चुनावी मिट्टी है जहां पीके ने अपने नए 'जन सुराज' का बीज बोया है।
केजरीवाल का फॉर्मूला 'भ्रष्टाचार' का चुनावी जुमला
प्रशांत किशोर ने बिहार चुनाव में अपनी एंट्री को एक धमाकेदार बयान से शुरू किया है। उन्होंने ऐलान किया कि सत्ता में आने पर वह पहले 100 भ्रष्ट नेताओं और अफसरों को जेल भेजेंगे। याद कीजिए, यह बिल्कुल वही चुनावी हुंकार थी जिसे कभी अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में दी थी।
केजरीवाल ने भी सत्ता में आते ही भ्रष्टाचार को खत्म करने की कसम खाई थी, लेकिन जल्द ही उनकी सरकार दूसरे राजनीतिक दांव-पेंच में उलझ गई। जनता को लगा कि वादे पूरे नहीं हुए।
नतीजतन, दिल्ली की सत्ता अब उनकी पकड़ से दूर चली गई। साथ ही, लोकसभा चुनावों में भी जनता ने उन्हें पहले ही दरकिनार कर दिया।
क्या PK ने केजरीवाल की गलती दोहराई?
अति-आशावाद: 100 लोगों को जेल भेजने का वादा जनता में अति-आशावाद पैदा करता है, जो पूरा न होने पर तीव्र निराशा में बदल जाता है।
भरोसे का संकट: बिहार का वोटर अब दिल्ली के उस वोटर जैसा भोला नहीं रहा। वह देख चुका है कि 'नई पार्टी' और 'नए दावे' कैसे हवा हो जाते हैं।
जंगलराज की छाया: बिहार की जनता आज भी 'जंगलराज' की वापसी की संभावना से डरी हुई है। उनकी प्राथमिक चिंता सुरक्षा, कानून-व्यवस्था और विकास है, न कि केवल जेल जाने वाले भ्रष्ट लोग।
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मतदाता का नया 'बिहार मॉडल' अब सिर्फ परखा जाता है
अब वह दौर चला गया जब बिहार का मतदाता केवल भावनात्मक नारों पर वोट दे देता था। आज, मतदाता हर चीज को परख रहा है। वर्तमान बिहार के मतदाता के दिमाग में चल रहे सवाल सुरक्षा का मूल्यांकन क्या मेरी बहू-बेटी आज जंगलराज के मुकाबले सुरक्षित हैं? विकास की तुलना पिछले 15 सालों में मेरे गांव/शहर में कितनी सड़कें बनीं, कितनी बिजली आई? भविष्य का डर क्या कोई नया राजनीतिक प्रयोग वापस अस्थिरता और अराजकता जंगलराज लाएगा?
यह कड़वा सच है कि अब मतदाता गोपनीय तरीके से, बिना किसी को बताए, अपने फैसले कर रहा है। उसे पता है कि कौन उसकी पहचान की राजनीति को हवा दे रहा है और कौन वास्तव में जमीन पर काम कर रहा है। पीके को इस 'साइलेंट वोटर' को साधना होगा, जो अब जाति और धर्म की जंजीरों से थोड़ा ऊपर उठकर 'परफॉरमेंस' को भी तवज्जो देने लगा है।
दबी हुई चिंता क्या पीके खुद की रणनीति का शिकार होंगे?
प्रशांत किशोर एक ब्रांड हैं। उनकी ब्रांडिंग यही है कि वह जिस पार्टी के साथ जुड़ते हैं, उसे जीत दिला देते हैं। लेकिन, जब वह खुद मैदान में हैं, तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती उनकी अपनी छवि है।
रणनीतिकार बनाम नेता: जनता यह जानना चाहती है कि वह एक 'रणनीतिकार' हैं या एक 'स्थायी नेता'। उनकी लगातार दल बदलने की छवि उनके भरोसे को कम कर सकती है।
बाजी प्रशांत की या पीके की? यह कहना जल्दबाजी होगी कि प्रशांत किशोर बिहार में सफल होंगे या नहीं। उनके पास एक स्पष्ट एजेंडा है भ्रष्टाचार, जातिवाद और जंगलराज से मुक्ति। लेकिन, उनका तरीका—केजरीवाल के 'एंटी-करप्शन' फॉर्मूले को बिहार में दोहराना—एक बड़ा जोखिम है।
बिहार का चुनावी रण, दिल्ली की सड़कों से बहुत अलग है। यहां की राजनीति की जड़ें बहुत गहरी और जटिल हैं। पीके को न केवल मजबूत प्रतिद्वंद्वी दलों से लड़ना है, बल्कि उस संदेह से भी लड़ना है जो एक 'चुनावी गुरु' के 'स्थायी नेता' बनने के प्रयास पर उठ रहा है।
अगर, पीके अपनी रणनीति को बिहार की जातीय और विकास केंद्रित नब्ज के अनुरूप ढालने में कामयाब होते हैं, तो वह एक नया अध्याय लिख सकते हैं। लेकिन अगर वह केवल दिल्ली का सफल फॉर्मूला बिहार पर थोपने की कोशिश करते हैं, तो उनकी यह बाजी राजनीतिक रणनीति के इतिहास में एक और 'गंवाई हुई बाजी' के तौर पर दर्ज हो सकती है।
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