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Photograph: (shahjhaanpur netwrk)
शाहजहांपुर वाईबीएन संवाददाता। 1857 की क्रांति में जब देश के कोने-कोने में विद्रोह की आग भड़की थी तब एक नाम अंग्रेजों के दिलों में खौफ भर देता था मौलवी अहमद उल्लाह शाह। हाथी पर सवार आगे बजता डंका और पीछे उमड़ता जनसैलाब… यही उनकी पहचान थी। लोग उन्हें डंकाशाह कहकर पुकारते थे।
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गोपामऊ के लाल... कर दिया कमाल
मूल रूप से हरदोई के गोपामऊ के रहने वाले मौलवी का जन्म वर्ष 1787 में मद्रास के चिनयायापट्टनम में हुआ था। अपने गुरु पीर मेहराब शाह की आज्ञा पर वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। कहा जाता है कि मशहूर चपाती वितरण योजना जिसके जरिए अंग्रेजों के खिलाफ एक साथ विद्रोह की गुप्त तैयारी हुई उन्हीं की सोच थी।
अवध और फैजाबाद में अंग्रेजी हुकूमत का सफाया कर उन्होंने बिरजिस कादिर को नवाब बनाया और फिर शाहजहांपुर का रुख किया। यहां गैरिसन में 82वीं फुट रेजीमेंट, घुड़सवार सेना और चार तोपें मौजूद थीं। प्रभारी अधिकारी कर्नल हेल ने रातभर खाई खोदकर किलेबंदी कर ली, लेकिन मौलवी के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने मऊ घाट से हमला बोल दिया। नौ दिन तक घेरा रहा, तोपें गरजती रहीं, मगर जड़नाल तोपों के कारण निर्णायक बढ़त नहीं मिल पाई। कमांडर इन चीफ कॉलिन कैंपबेल ने ब्रिगेडियर जोन्स को भेजा, लेकिन वह भी शहर में प्रवेश का साहस न जुटा सका। मौलवी ने पुराना किला अपने कब्जे में ले लिया और अंग्रेजी सेना को जिले से बाहर खदेड़ दिया।
पुवायां में बलिदान, कोतवाली के पास बांस में टांगा गया शीश, लोदीपुर के पास माटी का सम्मान
शौर्य की यह गाथा पुवायां में आकर थमी। मौलवी राजा पुवायां को अंग्रेज विरोधी मोर्चे में लाने पहुंचे थे। तभी तहसीलदार-थानेदार के समर्पण और अंग्रेज ड्यू मूटे की साजिश से राजा के भाई बलदेव सिंह ने गोली मार दी। वे मौके पर ही शहीद हो गए। उनका सिर काटकर शाहजहांपुर लाया गया और कोतवाली पर बांस में टांग दिया गया। छह-सात दिन बाद उत्साही युवाओं ने उसे सम्मानपूर्वक उतारकर लोदीपुर में दफना दिया। आज भी वहां उनकी मजार पर लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं। मौलवी की मृत्यु के बाद उनका खजाना बेगम हजरत महल के पास पहुंचा, जो तब क्रांति की नई नेता बनीं। मौलवी अहमद उल्लाह शाह का बलिदान इतिहास का वह पन्ना है, जो देशभक्ति और साहस की मिसाल हमेशा जिंदा रखेगा।
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