शाहजहांपुर,वाईबीएन संवाददाता
हर साल शाहजहांपुर में बड़े लाट साहब की सवारी निकलती है, इस आयोजन के लिए विशेष इंतजाम किए जाते हैं। इस बार, एक साथ होली और जुमा का पर्व था, जिससे सवारी के आयोजन में कुछ विशेष सावधानी बरती गई थी। हालांकि, यह कोई नई बात नहीं है, क्योंकि ऐसा दुर्योग पहले भी कई बार हो चुका है, लेकिन हर बार इसे शांति से निपटा लिया जाता रहा है। इस बार सवारी के आयोजन में कुछ बदलाव नजर आए, क्योंकि नई पीढ़ी के नम्बरदारों ने इसका संचालन संभाला।
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लाट साहब को जिस स्थान पर जाना था, वहां न ले जाकर सीधे बाबा चौकसीनाथ फूलमती मंदिर ले जाया गया। नम्बरदारों ने देखा कि लाट साहब की सवारी (भैंसा गाड़ी) तैयार नहीं थी और सिंघासन (लोहे की कुर्सी) बांधी जा रही थी। इस दौरान, जब दूतों ने यह सूचना दी, तो नम्बरदारों में से एक ने लाट साहब को भैरों मंदिर में बिठा दिया। वहां भीड़ लगी थी और लगभग बीस मिनट में उनका सिंघासन तैयार हुआ। इसके बाद, किसी ने बिना लाट साहब के बैठे ही लढ़ी आगे बढ़ा दी, और उन्हें चलती लढ़ी में चढ़ाकर कोतवाली ले जाया गया, जहां सलामी दी गई। इसके बाद, सवारी पुलिस के हवाले कर दी गई और पेट्रोल जैसा माहौल बन गया।
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किला के पास स्थित छाया कुआं पर हर साल की तरह उपद्रवी घटनाएं देखने को मिलीं। वहां जूता, झाड़ू और अन्य सामान फेंके गए, लेकिन सुरक्षा में लगे लोगों को इस स्थिति को शांतिपूर्वक संभालने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है। यही कारण था कि इस बार सुरक्षा व्यवस्था में कुछ बदलाव देखने को मिला।
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इस बार के आयोजन में नये लोग शामिल थे, जो जुलूस की आंतरिक व्यवस्था संभाल रहे थे। पहले पुलिस अधिकारियों द्वारा उन कर्मियों को बुलाया जाता था, जो लंबे समय से इस आयोजन को संभालते आ रहे थे, खासकर एसओजी के सिपाही और दरोगा। एक समय रामपाल दरोगा का नाम प्रमुखता से लिया जाता था, जो कई दशकों तक सवारी के संचालन में मुख्य भूमिका निभाते थे। उनका तरीका बहुत ही कुशल और शांतिपूर्ण होता था।
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इस बार, पुलिस ने पश्चिमी क्षेत्रों के जवानों को तैनात किया, जो थोड़े तल्ख होते हैं और उनके अंदर लखनवी तहज़ीब की कमी देखी गई। इस बदलाव के कारण कई बार स्थिति तनावपूर्ण हो गई और जब केन और जूते उछले, तो पुलिस के डंडे भी मचल गए। हालांकि, यह सब होली का हिस्सा था और परंपरा को बनाए रखते हुए, हुड़दंग के बावजूद आयोजन सकुशल संपन्न हुआ।
अगर सुरक्षा व्यवस्था में बदलाव किया जाए, तो इस परंपरा को जारी रखना और भी मुश्किल हो सकता है। यह परंपरा सरकारी संरक्षण के तहत हो रही है, और इसे कुत्सित करने की बजाय उसका सम्मान बनाए रखना जरूरी है। आखिरकार, लाट साब का नाम सरकार द्वारा दिया गया है और यह जुलूस सरकारीकरण की ओर बढ़ता जा रहा है।
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