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बिहार के नौजवानों-किसानों-मजदूरों का दर्द : 1990 से 2005 की वो सच्चाई जिसे पढ़कर आंसू नहीं रोक पाएंगे

लालू-राबड़ी राज 1990- में बिहार की 15 सरकारी चीनी मिलों पर ताला लगा, जिससे लाखों लोग बेरोजगार हुए और पलायन को मजबूर हुए। जानें कैसे वित्तीय घोटाले, जबरन वसूली और राजनीतिक उपेक्षा ने सकरी, लोहट, मोतीपुर जैसी मिलों को बर्बाद किया।

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Ajit Kumar Pandey
बिहार के नौजवानों-किसानों-मजदूरों का दर्द : 1990 से 2005 की वो सच्चाई जिसे पढ़कर आंसू नहीं रोक पाएंगे | यंग भारत न्यूज

बिहार के नौजवानों-किसानों-मजदूरों का दर्द : 1990 से 2005 की वो सच्चाई जिसे पढ़कर आंसू नहीं रोक पाएंगे | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । आज अगर आप बिहार के किसी भी बड़े रेलवे स्टेशन पर खड़े हों तो आपको एक ही तस्वीर दिखेगी बड़ी-बड़ी गठरियां उठाए, पेट में भूख और आंखों में अनिश्चितता लिए, हज़ारों की संख्या में पलायन करते हुए मज़दूर। यह पलायन केवल वर्तमान की समस्या नहीं है, बल्कि इसका बीज 1990 के दशक में बोया गया था, जब बिहार की औद्योगिक रीढ़, उसकी चीनी मिलें, एक-एक करके दम तोड़ रही थीं।

एक समय था जब बिहार को भारत के 'चीनी का कटोरा' Sugar Bowl कहा जाता था। 1960 के दशक में, यहां 30 से अधिक बड़ी चीनी मिलें थीं। ये सिर्फ फैक्ट्रियां नहीं थीं, बल्कि हजारों किसानों और उनके परिवारों की रोजी-रोटी थीं। लेकिन, 1990 और 2005 के बीच – जिसे राजनीतिक हलकों में 'लालू-राबड़ी युग' कहा जाता है – इन सरकारी चीनी मिलों पर 'जंग का ताला' लटक गया। 

बिहार में एक समय 30 से अधिक चीनी मिलें थीं, लेकिन 1990 से 2005 के लालू-राबड़ी शासनकाल में 15 सरकारी चीनी मिलों पर ताला लग गया। वित्तीय कुप्रबंधन, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और गुंडाराज ने सकरी, लोहट, मोतीपुर जैसी मिलों को बंद कर दिया। इस महाबंदी ने लाखों किसानों को बेरोजगार किया और राज्य को 1000 करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ, जो आज भी पलायन का मुख्य कारण है।

क्या आप जानते हैं? 1977 से 1985 के बीच बिहार सरकार ने 15 से अधिक निजी मिलों का अधिग्रहण किया था, ताकि उन्हें बचाया जा सके। विडंबना देखिए, जिन मिलों को सरकार ने बचाने के लिए अपनाया, वे ही सरकार बदलने के बाद कुप्रबंधन के कारण दम तोड़ गईं। 

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बंद चीनी मिलों की लंबी फ़ेहरिस्त: कौन सी औद्योगिक इकाइयों पर लगा ताला?

बिहार राज्य चीनी निगम लिमिटेड: BSSC के अधीन चलने वाली इन मिलों का बंद होना सिर्फ एक फैक्ट्री का बंद होना नहीं था, बल्कि एक पूरे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का ढह जाना था। साल 1996-97 का पेराई सत्र इन मिलों के लिए आखिरी साबित हुआ। 

यहां एक नज़र उन प्रमुख मिलों पर, जिनकी चिमनियों से धुआं निकलना बंद हो गया और जो लाखों लोगों के लिए 'दर्द का सबब' बन गईं।

बिहार के नौजवानों-किसानों-मजदूरों का दर्द : 1990 से 2005 की वो सच्चाई जिसे पढ़कर आंसू नहीं रोक पाएंगे | यंग भारत न्यूज
बिहार के नौजवानों-किसानों-मजदूरों का दर्द : 1990 से 2005 की वो सच्चाई जिसे पढ़कर आंसू नहीं रोक पाएंगे | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
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क्रम संख्याचीनी मिल का नामस्थापित स्थान जिलाबंद होने का अनुमानित वर्ष
01सकरी चीनी मिल सकरीमधुबनी1997
02रैयाम चीनी मिल रैयाममधुबनी (पुराना दरभंगा)1994
03लोहट चीनी मिल लोहटमधुबनी1996-97
04मोतीपुर चीनी मिल मोतीपुरमुजफ्फरपुर1997
05चनपटिया चीनी मिल चनपटियापश्चिम चंपारण 1994
06चकिया चीनी मिल चकियापूर्वी चंपारण 1994
07वारिसलीगंज चीनी मिल वारिसलीगंजनवादा 1992
08गोरौल चीनी मिल गोरौलवैशाली1996
09गुरारू चीनी मिल गुरारूगया1996
10हथुआ चीनी मिल हथुआगोपालगंज 1996
11सीवान चीनी मिलसीवान1996
12न्यू सावन चीनी मिलसीवान1996
13बनमनखी चीनी मिल बनमनखीपूर्णिया 1996
14बरौली चीनी मिल बरौलीगोपालगंज 1996
15बगहा चीनी मिल बगहापश्चिम चंपारण 1996-97

इन बंदिशों के पीछे की कहानी महज़ आर्थिक घाटे की नहीं है, बल्कि यह एक गहरी व्यवस्थागत विफलता और राजनीतिक उपेक्षा की दास्तान है। 

चीनी मिलों के 'कत्ल' के 6 सबसे बड़े कारण 

वित्तीय घोटाला, जबरन वसूली और उपेक्षा: जब कोई उद्योग बंद होता है तो उसके पीछे कई कारण होते हैं, लेकिन बिहार की चीनी मिलों के मामले में, राजनीतिक विश्लेषक और आर्थिक जानकार तीन मुख्य कारणों पर एकमत हैं। 

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सरकारी कुप्रबंधन, वित्तीय घोटाला, जर्जर मशीनें और शून्य निवेश: साल 1990 के दशक तक इन मिलों की मशीनें पुरानी और अक्षम हो चुकी थीं। समय के साथ आधुनिकीकरण पर कोई निवेश नहीं हुआ। नतीजतन, उत्पादन लागत बढ़ती गई और बाज़ार में वे निजी मिलों से मुकाबला नहीं कर पाईं। 

कर्मचारियों की ओवर-स्टाफिंग: मिलों में राजनीतिक प्रभाव के कारण ज़रूरत से ज़्यादा कर्मचारियों की भर्ती की गई। सैलरी पर होने वाला खर्च उत्पादन से होने वाली आय से अधिक हो गया, जिससे घाटा लगातार बढ़ता गया। 

चीनी बिक्री में अनियमितता: सबसे बड़ा आरोप वित्तीय घोटालों का है। चीनी के स्टॉक को कम दाम पर बेचना, या कागज़ों पर हेरफेर कर पैसा गायब करना, ये सब इस दौरान आम हो गया।

'जबरन वसूली' और गुंडाराज का खौफ: 1990 का दशक बिहार में 'कानून-व्यवस्था' के लिए एक मुश्किल दौर था। मिलों के मालिकों और अधिकारियों को लगातार जबरन वसूली Extortion और धमकी का सामना करना पड़ता था। कच्चे माल की ढुलाई से लेकर चीनी के बाहर जाने तक, हर कदम पर अपराधी गिरोहों का दखल बढ़ गया। मिलों के अधिकारियों में काम करने का खौफ इस कदर बढ़ गया कि कई अधिकारी बिहार छोड़कर भाग गए। यह सिर्फ पैसे की वसूली नहीं थी, बल्कि कानून के राज का पतन था, जिसने पूंजीपतियों को बिहार में निवेश करने से रोक दिया। 

राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और किसानों की उपेक्षा: सबसे घातक था राजनेताओं की उदासीनता। विशेषज्ञों का मानना है कि इन मिलों को बचाने के लिए राजनीतिक स्तर पर कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। 1990 के दशक में राजनीति पूरी तरह सत्ता के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई। उद्योग और अर्थव्यवस्था पीछे छूट गए। गन्ने के किसानों का बकाया भुगतान समय पर नहीं किया गया। उनका कर्ज़ बढ़ता गया और उन्होंने गन्ना उगाना ही बंद कर दिया। जब मिलों को गन्ना मिलना बंद हो गया, तो उनका बंद होना केवल समय की बात थी। 

बिहार के नौजवानों-किसानों-मजदूरों का दर्द : 1990 से 2005 की वो सच्चाई जिसे पढ़कर आंसू नहीं रोक पाएंगे | यंग भारत न्यूज
बिहार के नौजवानों-किसानों-मजदूरों का दर्द : 1990 से 2005 की वो सच्चाई जिसे पढ़कर आंसू नहीं रोक पाएंगे | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)

सामाजिक-आर्थिक त्रासदी: जब ताला लगा तो बिहार को क्या गंवाना पड़ा? 

15 मिलों का बंद होना सिर्फ सरकारी घाटा नहीं था, बल्कि बिहार की सामाजिक-आर्थिक संरचना पर एक गहरा घाव था, जो आज तक नहीं भरा है। 

लाखों की बेरोज़गारी: मिलों में हज़ारों नियमित कर्मचारी और लाखों सीजनल मजदूर काम करते थे। एक झटके में वे सब बेरोजगार हो गए। 

किसानों की आय ख़त्म: मिलों से जुड़े लाखों गन्ना किसानों की इकलौती आय का स्रोत ख़त्म हो गया। पूर्वी चंपारण, मधुबनी, गोपालगंज जैसे जिलों की कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई। 

पलायन का जन्म: जब गांव-शहरों में कोई काम नहीं बचा, तो लोगों के पास एकमात्र रास्ता बचा पलायन। आज भी बिहार के मज़दूर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और मुंबई में काम की तलाश में भटकते हैं। 

एक गन्ना किसान का दर्द: "सकरी मिल जब चलती थी, तो पूरे गांव में रौनक रहती थी। पैसा हाथ में आता था। मिल बंद हुई, तो बेटा दिल्ली गया मज़दूरी करने। हम आज भी उस ताले को कोसते हैं।" 

वर्तमान राजनीति में चीनी मिलों का भूत और 'नौकरी' का वादा 

आज बिहार की राजनीति एक बार फिर रोजगार और पलायन के वादे के इर्द-गिर्द घूम रही है। राष्ट्रीय जनता दल RJD के नेता और महागठबंधन के संयुक्त उप-मुख्यमंत्री उम्मीदवार तेजस्वी यादव आज युवाओं को हर घर में एक सरकारी नौकरी देने का वादा कर रहे हैं। लेकिन यह विडंबना ही है कि जिस पार्टी के शासनकाल में 15 से अधिक चलती हुई सरकारी मिलें बंद हुईं, जिसने लाखों लोगों को बेरोज़गार किया, उसी पार्टी के नेता आज लाखों नई नौकरियों का वादा कर रहे हैं। 

सवाल बड़ा है, जो सरकारें चल रही मिलों को बचा नहीं पाईं, उन पर ताला लगा दिया, क्या वे नई नौकरियों के अवसर पैदा कर पाएंगी? क्या बिहार की जनता 'मीठे वादों' पर यकीन करेगी या बंद मिलों के 'कड़वे सच' को याद रखेगी? 

बिहार को फिर से आत्मनिर्भर बनाने के लिए, सिर्फ सरकारी नौकरियों का वादा काफी नहीं है। राज्य को बंद पड़ी चीनी मिलों, जूट मिलों और अन्य उद्योगों को पुनर्जीवित करने के लिए एक ठोस औद्योगिक नीति की ज़रूरत है। जब तक बिहार में ही काम नहीं होगा, तब तक पलायन नहीं रुकेगा और राज्य गरीबी के दुष्चक्र से नहीं निकल पाएगा। 

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